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बेला' और 'नये पत्ते' के साथ निराला-काव्य का मध्यवर्ती चरण समाप्त होता है । 'बेला' उनका एक विशिष्ट संग्रह है, क्योंकि इसमें सर्वाधिक ताजगी है । अफ़सोस कि निराला-काव्य के प्रेमियों ने भी इसे लक्ष्य नहीं, इसे उनकी एक गौण कृति मान लिया है । 'नये पत्ते' में छायावादी सौंदर्य-लोक का सायास किया गया ध्वंस तो है ही, यथार्थवाद की अत्यंत स्पष्ट चेतना भी है । 'बेला' की रचनाओं की अभिव्यक्तिगत विशेषता यह है कि वे समस्त पदावातली में नहीं रची गयीं, इसलिए 'ठूँठ' होने से बाख गयी हैं । इस संग्रह में बराबर-बराबर गीत और गजलें हैं । दोनों में भरपूर विषय-वैविध्य है, यथा रहस्य, प्रेम, प्रकृति, दार्शनिकता, राष्ट्रीयता आदि । इसकी कुछ ही रचनाओं पर दृष्टिपात करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है । 'रूप की धारा के उस पार/ कभी धंसने भी डोज मुझे?', 'बातें चलीं सारी रात तुम्हारी; आँखे नहीं खुलीं प्राप्त तुम्हारी।', 'लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो/भरा दौंगरा उन्हीं पर गिरा । 'बहार मैं कर दिया गया हूँ । भीतर, पर, भर दिया गया हूँ ।' आदि । राष्ट्रीयता ज्यादातर उनकी गजलों में देखने को मिलती है । निराला की गजलें एक प्रयोग के तहत लिखी गयी हैं। उर्दू शायरी की एक चीज उन्हें बहुत आकर्षित करती थी । वह भी उसमें पूरे वाक्यों का प्रयोग । उन्होंने हिंदी में भी गजलें लिखकर उसे हिंदी कविता में भी लाने के प्रयास किया । निराला-प्रेमियों ने भी उसे एक नक़ल-भर मन और उन्हें असफल गजलकार घोषित कर दिया । सच्चाई यह कि आज हिंदी में जो गजले लिखी जा रही हैं, उनके पुरस्कर्ता भी निराला ही हैं । ये गजलें मुसलसल गजलें हैं । मैं स्थानाभाव में उनकी एक गजल का एक शेर ही उद्धृत कर रहा हूँ: तितलियाँ नाचती उड़ाती रंगों से मुग्ध कर-करके, प्रसूनों पर लचककर बैठती हैं, मन लुभाया है ।.
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Poetry;