Vivekanand

Vivekanand

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  • ISBN: 9788180312281
  • Edition/Reprint: 4th
  • Author(s): Romain Rolland, Tr. S. H. Vatsyayan 'Agyey', Raghuvir Sahai
  • Publisher: Lokbharti Prakashan
  • Product ID: 566204
  • Country of Origin: India
  • Availability: Sold Out

About Product

दो वर्ष भारत-भर में और अनन्तर तीन वर्ष विश्व-भर में उनका परिभ्रमण उनकी स्वतंत्र स्वाभाविक चेतना और सेवा-भावना का सहज ही यथेष्ट पूरक सिद्ध हुआ। वह घर-समाज के बन्धन से मुक्त, स्वच्छन्द, ईश्वर के साथ निरन्तर अकेले घूमते रहे। उनके जीवन का कोई क्षण ऐसा न था जिसमें उन्होंने ग्राम में, नगर में, धनी के, निर्धन के जीवन-स्पन्द की वेदना, लालसा, कुत्सा और पीड़ा से साक्षात् न किया हो। वह जन के जीवन से एकाकार हो गए। जीवन के महाग्रन्थ में उन्हें वह मिला जो पुस्तकालय की समस्त पोथियों में नहीं मिला था। पथचारी शिक्षार्थियी के रूप में कैसी अद्वितीय शिक्षा उनको मिली!...अस्तबल में या भिखारी-टोले में सो रहनेवाले जगत्-बधु ही नहीं थे, वह समदर्शी थे...आज अछूतों के आश्रय में पड़े तिरस्कृत मँगते हैं तो कल राजकुमारों के महेमान हैं, प्रधानमन्त्रियों औरे महाराजाओं से बराबरी पर बात कर रहे हैं, कभी दीनबन्धु रूप में पीडि़तों की पीड़ा को समर्पित हो रहे हैं, तो कभी श्रेष्ठियों के ऐश्वर्य को चुनौती दे रहे हैं और उनके निर्मम मानस में दुखी जन के लिए ममता जगा रहे हैं। पंडितों की विद्या से भी उनका परिचय था और औद्योगिक एवं ग्रामीण अर्थव्यपस्था की उन समस्याओं से भी, जो जनजीवन की नियामक हैं। वह निरन्तर सीख रहे थे, सिखा रहे थे और अपने को धीरे-धीरे भारत की आत्मा, उसकी एकता और उसकी नियति का प्रतीक बनाते जा रहे थे। ये तत्त्व उनमें समाहित थे और सारे संसार ने इनके दर्शन विवेकानन्द में किए।.

Tags: SWAMI VIVEKANANDA; Biography;

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