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मनुष्य की सृजनात्मक कृतियों में यात्रा संस्मरणों की बहुमूल्य सहभागिता और अक्षय अवदान को पाश्चात्य साहित्य के साथ - साथ हिन्दी साहित्य में भी स्वीकार किया गया है । किन्तु हिन्दी में , उसे अपेक्षित प्रतिष्ठा नहीं मिली है । निःसन्देह यह अपने बलबूते एक स्वतन्त्र विधा होने का सामर्थ्य रखता है । इसके कई कारणों में एक भारतीयों की आत्ममुग्धाता न होकर , उनका वह जीवन दर्शन है , जिसमें परम देव - सत्ता को ही सब - कुछ मान लिया जाता है । ' सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज , श्रीमद्भगवद्गीता , 18 वाँ अध्याय किन्तु इस महान् देश की चेतना और संवेदना , समस्त सृष्टि में परिव्याप्त सत्यम् शिवम् और सुन्दरम् को भी अपनी स्पन्दित स्मृतियों में सँजोती - सँवारती रही है । फलस्वरूप आधुनिक हिन्दी साहित्य में गद्य का विकास , आवागमन और मुद्रण की सुविधा एवं पत्र पत्रकारिता के प्रसार के साथ भूमण्डलीय सम्पर्क तथा संचार साधनों की वृद्धि के कारण हुआ । इससे , विशेषतः हिन्दी - साहित्य के अन्तर्गत , यात्रा संस्मरण के लेखन - क्षेत्र में निरन्तर अपूर्व सक्रियता दिखायी देती रही है । निःसन्देह हिन्दी का यात्रा - साहित्य भी काल क्रम में हिन्दी का ही नहीं , राष्ट्र की बहुमूल्य निधि के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है ।
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