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बीसवीं सदी की हिन्दी कविता में अपनी धुन और आत्महानि की सीमा तक जाकर, लीक छोड़ लिख पाने वाले कम हैं लेकिन शायद विष्णु खरे उन्हीं में गिने जाएँ । अव्वल तो बहुत ज्यादा लिखने में उनका विश्वास नहीं रहा और उसे भी प्रकाशित करने के प्रति वे बहुत उत्साहित नहीं रहे-चार दशकों से ज्यादा के काव्य- जीवन में कुल चार कविता-संग्रह जिनमें से एक अप्रसारित और दूसरा पुस्तिका जैसा, और इससे पहला (जिसे रघुवीर सहाय ने 'यह उपलब्धि’ जो आधुनिक कविता के प्रयत्न को सम्पूर्ण बनाती है' और 'अद्धितीय' कहा था तथा जिसे परमानन्द श्रीवास्तव, नंदकिशोर नवल, प्रभात त्रिपाठी, चन्द्रकांत देवताले और सुधीश पचौरी ने सराहनीय पाया था) करीब सोलह वर्ष पहले प्रकाशित हुआ था । विष्णु खरे की असफलता इस बात में रही कि उनकी कविता हिन्दी के विभिन्न समसामयिक संप्रदायों को तुष्ट नहीं कर पाई । उनके न तो गुरु-संरक्षक रहे, न मित्र-प्रोत्साहक और न भक्त-शिष्य । ऐसी लगभग सर्वसम्मत उपेक्षा के बावजूद कहीं-कहीं उनकी कविताएँ न केवल याद रखी गईं बल्कि कभी-कभी उनकी माँग भी की जाती रही, यही कोई कम गनीमत नहीं है । अपने और दूसरों के लिए और मुश्किलें पैदा करते हुए विष्णु खरे एक ऐसी भाषा का इस्तेमाल करते हैं जिसमें भूले-भटके काव्यावेश आ जाता है, वर्ना अक्सर उसमें निम्न-मध्यवर्गीय संकेतों और ब्याजशब्दावली का बाहुल्य रहता है ओर कभी उनकी जुबान बातचीत की तरह आमफहम, दफ्तरी, अखबारी, तत्समी या गवेषणात्मक तक हो जाती है और खतरनाक ढंग से कहानी, गद्य, वर्णन, ब्यौरों, रपट आदि के नज़दीक पहुँचती है और यह तय करना कठिन होता है कि उस निर्विकार-सी वस्तुपरकता में तथ्याभास का व्यंग्य है, करुणा है या उन्हें कविता लिखना ही नहीं आता । कविता के विषयों को लेकर भी उनके यहाँ एक कैलाइडोस्कोप की बहुबिम्बदर्शी विविधता है जो उनकी हर चीज में दिलचस्पी के दखल की पैदाइश है और इस जिद की कि सब कुछ में जो कविता है उसका कुछ हिस्सा हासिल करना ही है । दुनिया उनके आगे बाज़ीचा-ए-इत्फ़ाल नहीं, उसमें जन्म ले चुके आदमी का कौतूहल और कशमकश है । विष्णु खरे को भी कवियों का कवि कहकर दाखिल-दफ्तर कर देना सुविधाजनक है लेकिन वे उन सजगों के कवि हैं जिनकी तादाद अंदाज से कहीं ज्यादा है । भारतीय आदमी और मानव के लिए उनकी प्रतिबद्धता असंदिग्ध है लेकिन वे सारे ऐहिक और अपौरुषेय व्यापार, माया और लीला, यथार्थ और मिथक को जानने के प्रयास के प्रति भी वचनबद्ध हैं क्योंकि हर बार उसे नई तरह से जानना चाहे बिना आदमी और अस्तित्व के पूरे बखेड़े को समझने की कोशिश अधूरी ही रहेगी । इसमें अनुभववाद या दूर की कौड़ी लाने का लाघव-प्रदर्शन नहीं है, समूचे जीवन से वाबस्तगी की बात है । इसीलिए विष्णु खरे की कविता न तो आदमी और समाज से घबराकर 'शुद्ध कला', अध्यात्म या रहस्यवाद में पलायन करती है और न कायनात को मात्र भौतिक मान किसी आसान ‘वाद' की शरण लेती है । उनके यहाँ अनुभव और कविता 'प्योर' तथा 'अप्लाइड' दोनों अर्थों में हैं क्योंकि दोनों प्रकारों का एक-दूसरे के बिना अस्तित्व और गुजारा सम्भव नहीं है । वे वाकई अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने को मनुष्य और कवि होने की सार्थकता मानते हैं । इस संग्रह की कविताओं में भी वे अपने कथ्य, भापा तथा शैली को जोखिम भरी चुनौतियों .और परीक्षाओं के सामने ले गये हैं । वे कविता को बाँदी या देवदासी की तरह नहीं, मानव-प्रतिभा की तरह हर काम में सक्षम देखना चाहते हैं क्योंकि उनका मानना है कि ऐसी कोई स्थिति नहीं है जिसकी अपनी कोई अर्थवत्ता न हो-हर आवाज के पीछे जो दुनिया है, विष्णु खरे की यदि कोई महत्त्वाकांक्षा है तो उसे ही अभिव्यक्ति देने का प्रयास करने की लगती है ।
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Poetry;