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‘दलित लेखन दलित ही कर सकता है’ को पारंपरिक सोच के ही नहीं, प्रगतिशील कहे जाने वाले आलोचकों ने भी संकीर्णता से लिया है । दलित-विमर्श साहित्य में व्याप्त छदम को उघाड़ रहा है । साहित्य में जो भी अनुभव आते हैं वे सर्वभौमिक और शास्वत नहीं होते । इन सन्दर्भों में ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानियां दलित जीवन की संवेदनशीलता और अनुभवों की कहानियां हैं, जो एक ऐसे यथार्थ से साक्षात्कार कराती हैं, जहाँ जहरों साल की पीड़ा अँधेरे कोनो में दुबकी पड़ी है । वाल्मीकि के इस संग्रह की कहानियां दलितों के जीवन-संघर्ष और उनकी बेचैनी के जिवंत दस्तावेज हैं, दलित जीवन की व्यथा, छटपटाहत, सरोकार इन कहानियों में साफ़-साफ़ दिखायी पड़ती हैं । ओमप्रकाश वाल्मीकि ने जहाँ साहित्य में वर्चस्व की सत्ता को चुनौती दी है, वहीँ दबे-कुचले, शोषित-पीड़ित जन समूह को मुखरता देकर उनके इर्द-गिर्द फैली विसंगतियों पर भी चोट की है । जो दलित विमर्श को सार्थक और गुणात्मक बनाती है । समकालीन हिंदी कहानी में दलित चेतना की दस्तक देने वाले कथाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि की ये कहानियां अपने आप में विशिष्ट हैं । इन कहानियों में वास्तु जगत का आनद नहीं, दारूण दुःख भोगते मनुष्यों की बेचैनी है ।
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Fiction;
Stories;