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‘तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं में विश्वास रखते हुए भी यदि अपने में विश्वास नहीं है तो तुम्हें नास्तिक ही माना जाएगा।–यह कहकर स्वामी विवेकानन्द ने हमारे सामने कर्म और इहलौकिक सक्रियता का आह्वान किया था। मानव-मन में जीवन के प्रति उठनेवाली उमंग की राह में सबसे बड़ी बाधा मृत्यु का भय है। यह सोचकर कि अन्ततः एक दिन हम यहाँ नहीं होंगे, कितने ही प्रयास संकुचित रह जाते हैं। स्वामी विवेकानन्द ने इसी संकोच को विशेष तौर पर सम्बोधित किया और मृत्यु से, मृत्यु के भय से प्रेम करने को कहा ताकि जीवन के रूप में जितना समय हमारे पास है, उसका उपयोग वृहद् मनुष्यता और उसके भविष्य के लिए उत्सर्ग किया जा सके। यही विवेकानन्द का सैनिक भाव है–मृत्यु को साक्षात् देखते हुए जीवन की आराधना। इसीलिए रोम्याँ रोलाँ ने उन्हें ‘वारियर प्रोफेट’ कहा था। धर्म को व्यापक मानवीय अनुभव के रूप में परिभाषित करते हुए उन्होंने अध्यात्म को कर्मपथ पर अग्रसर देखना चाहा। इस पुस्तक में विवेकानन्द के जीवन और दर्शन को कथा की सी सहजता के साथ प्रस्तुत करते हुए उनके दार्शनिक-वैचारिक विकास की प्रक्रिया और उनके विचारों, विश्वासों तथा भारतीय मनीषा में उनके योगदान को रेखांकित किया गया है। भारत और विश्व की उनकी यात्राओं के रोचक विवरण और इस दौरान राष्ट्रवाद, धर्म और मानव-कल्याण के सन्दर्भ में चल रही उनकी भीतरी खोज-यात्रा के विभिन्न पड़ाव भी इसमें सँजोए गए हैं। विभिन्न विषयों, व्यक्तियों, सामाजिक समस्याओं और प्रश्नों पर उनके विचारों की प्रस्तुति इसका विशेष आकर्षण है जिससे विवेकानन्द के भावी अध्येता एक सम्पूर्ण बोध के साथ अपनी यात्रा शुरू कर सकते हैं।
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Biography;