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नब्बे के दशक में उभरनेवाली कथा–प्रतिभाओं में पंकज मित्र का नाम इसलिए ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि इन्होंने एक दशक से कथा क्षेत्र में अपनी उपस्थिति को बारम्बार महत्त्वपूर्ण साबित किया है । इस संग्रह की कहानियों में भी विद्रूपता एवं विडम्बना का एक खेल चलता रहता है और इस खेल में खुद कथाकार भी खिलंदड़ा हो जाता है पर कथ्य के रचाव या चरित्रों के विकास में वह हस्तक्षेप कभी नहीं करता । चरित्र अपनी तमाम क्षुद्रताओं के साथ कथ्य में उतरते हैं और विडम्बना के सधे प्रयोग द्वारा पंकज उनके मानवीय बो/ा को सामने ले आते हैं । अपने चरित्रों के साथ वे निर्ममता की हद तक तटस्थता बरतते हैं चाहे वह ‘बैल का स्वप्न’ का जेम्स खाखा जैसा निरीह, पुराने नैतिकताबो/ा से ग्रस्त चरित्र हो या ‘बे ला का भू’ का तेजतर्रार बेचूलाल या हुड़ुकलुल्लु का महाकालµसब अपने स्वाभाविक रूप में स्थितियों की मार झेलते अपने समय से टकराकर लहूलुहान होते चरित्र हैं । उनको उदात्त रूप में प्रस्तुत करने की लेखक की कोई मंशा भी नहीं है, मगर सिर्फ विद्रूपता का चित्रण पंकज का उद्देश्य नहीं है, सोद्देश्यता की किसी परिपाटीबद्ध थ्योरी को खारिज करते हुए पंकज इन्हें पूरे मानवीय रूप में प्रस्तुत करते हैं । बहुस्तरीय एवं वैवि/यपूर्ण भाषा में रची गई इन कहानियों में हिन्दी की विभिन्न बोलियों के टोन एवं मुहावरों के मारक प्रयोग जरूरत के अनुसार अपनी पूरी शक्ति के साथ उपस्थित होते हैं और इस प्रक्रिया में भाषा अद्भुत रूप से ऐश्वर्यशाली हो जाती है । दास्तानपरक शैली में लिखी इन कहानियों के जरिए पंकज मित्र ने यह साबित किया है कि अपने समय की नब्ज“ पर उनकी पकड़ जरा भी ढीली नहीं पड़ी है बल्कि कसाव–लगाव और भी गहरा हुआ है और यह सचमुच आश्वस्ति देता है ।
Tags:
Fiction;
Stories;