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यह एक गद्य कविता है पर इसमें सघन बिम्ब, शब्दों से खिलवाड़, कई अविवक्षित अर्थों के संकेत, अप्रत्याशित मोड़ आदि सब हैं जो गद्य के नहीं, कविता के गुण होते हैं। कविता का शीर्षक जो संकेत देता है, उन्हें कविता की काया में ऐन्द्रिय रूप से चरितार्थ होते महसूस किया जा सकता है। जिस ‘जगह’ से कविता शुरू होती है, कविता के अंत तक आते-आते उसकी सच्चाई, आशय और परिणतियाँ अप्रत्याशित रूप से बहुल-उत्कट और अर्थगर्भी हो जाती हैं। साधारण जीवन की छवियाँ—जगह, चकवड़ के पौधे, br> जानवर, गर्मियों की शाम, बँधी पर सौ साँप, डंडे, प्यास, हिजड़े दोस्त—कविता का शिल्प रूपायित कर इस आत्मीय सच्चाई कि ‘जगह के बाहर मुलाक़ातें नहीं हो सकतीं’ और इस दार्शनिक सत्य तक पहुँचाती हैं कि जगह के बाहर ‘न दोस्त होते हैं, न लोग होते हैं, न होना होता है, न न होना होता है’। एक युवा कवि द्वारा एक अपेक्षाकृत अस्पष्ट विषय को इस कौशल और संयम से बरतना विरल है। अशोक वाजपेयी.
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Poetry;