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अशोक यादव की गज़लों में अनायास ही बिम्ब और सार्थक प्रतीकों का प्रयोग हो गया है। वे मुस्कुराते हैं, अपने अर्थ को ध्वनित करते हैं और इशारों में अपनी बात कहते हैं। हम सभी जानते हैं कि गज़ल किसी बात को साफ-साफ कहने का तरीका नहीं है बल्कि इशारों में अपनी बात कहने का मोहक अन्दाज़ है। इस अन्दाज़ से अशोक जी बखूबी परिचित हैं। इसलिए उनकी गज़लों में का और व्यंजना का सटीक प्रयोग पाया जाता है। उनकी गज़लें जि़न्दगी की धूप में पुरवाई का वह शीतल स्पर्श हंै जिससे थके इनसान की थकान मिटती है। मिट्टी की वह सांस्कृतिक सुगन्ध हैं जो सम्पूर्ण वातावरण को अपसंस्कृति के प्रदूषण से बचाती है। आकाश का वह विस्तार हैं जो सबको अपने में समाहित करने का हौसला रखता है और सबके दिलों में पलती हुई उस आग की तरह हैं जो स्नेह और प्रेम से भरे दीपक की लौ में ज्योतित होकर जहाँ अँधेरा है वहाँ-वहाँ प्रकाश का महोत्सव मनाती है और इनसानियत की पहरेदारी करती है।.
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Poetry;