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अष्टभुजा शुक्ल वर्तमान हिन्दी कविता के पेन्टहाउस रपे बाहर के कवि हैं जिनकी कविता का शीत-घाम देस के अन्दर के अहोरात्र से निर्धारित होता है, उस अहोरात्र के प्रतिपक्ष में तैयार किए गए उपकरणों से नहीं । उनका प्रकाश्यमान संग्रह ‘रस की लाठी’ भी उनके पूर्व प्रकाशित चार संग्रहों की तरह ही ऐसी ‘छोटी-छोटी बातों’ का बयान है जिनसे चाहे’ अमेरिका के तलवों में गुदगुदी भी न हो किन्तु जो समूचे हिन्दुस्तान को रुलाने के लिए काफ्री हैं । ‘रस को इस लाठी में चोट और मिठास एक दूसरे से कोई मुरौवत नहीं करते, किन्तु इस बेमुरौवत वर्तमान में भी एक सुरंग मौजूद है जिसका मुहाना भूत और भविष्य को संज्ञाओं के एक दूसरे में मिथुनीकृत हो जाने से बताए जानेवाले कालखंड की ओर खुलता है जिसमें वसन्त अभियोग नहीं है और प स्वर में मंगलगान की छूट होगी । इस कालखंड को काव्यरसृष्टि में भूत का ठोस भरोसा सरसों और गेहूँ की उस पुष्टि-प्रक्रिया पर टिका है जिसे सारी यांत्रिकता के बाबजूद मिटूटी, पानी और वसन्त की उतनी ही जरूरत है जितनी हमेशा से रही है, और भविष्य का तरल आश्वासन उतना ही मुखर है जितनी स्कूल जाती हुई लड़की को साइकिल को घंटी या गोद में सो रहे बच्चे के सपने में किलकती हँसी होती है । ये कविताएँ उन आँखों को आँखनदेखी हैं जिनसे टपकते लहू ने उन्हें इतना नहीं धुंधलाया कि वे सूरज की ललाई न पहचान सके । लेकिन भले ही कविता में इतनी ऊर्जा बचा रखने की दृढता हो कि वह बुरे वक्त की शबीह-साजी तक अपनी तूलिका को न समेट ले, डिस्टोपिया को ठिठुरन से सामना करने के लिए ऊँगलियों की लचक को कुछ अतिरिक्त उमा का ताप दिखाना ही पड़ता है । अष्टभुजा जी के पाठकों से यह बात छिपी न रहेगी कि उनकी कविता के जो अलंकार कभी दूर से झलक जाया करते थे हैं वे अब रीति बनकर उसकी धमनियों में दिपदिपा रहे हैं और उसकी कमनीयता अपनी काव्यसृष्टि की ‘फ़लानी’ क्री उस ‘असेवित देहयष्टि’ की कमनीयता है जिसकी गढ़न में अगली पीढी की जवानी तक पहुंचने बाली प्रौढता भी शामिल है । अष्टभुजा जी की कविता का मुहावरा समय के साथ उस बढ़ते हुए बोझ के सँभालने की ताकत और पुख्तगी अपने भीतर सहेजता रहा है जिसके तले आज की हिन्दी कविता के अधिकतर ढाँचे उठने के पहले ही भरभरा पड़ते हैं । जो लोग उनकी कविता से पहली बार इस संग्रह के नाते ही दुचार होंगे, उन्हें भी उसकी उस रमणीयता का आभास होगा जो अपने को निरन्तर पुनर्नवीकृत्त करती रहती है और जिसके नाते उसके अस्वादकों को उसका प्रत्येक साक्षात्कार एक आविष्कार लगता है । -वागीश शुक्ल.
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