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वर्तमान भारत में असमानता को समझने और उससे निपटने के लिए अरुंधति रॉय ज़ोर दे कर कहती हैं कि हमें राजनैतिक विकास और मोहनदास करमचंद गांधी के प्रभाव— दोनों का ही परीक्षण करना होगा। सोचना होगा कि क्यों भीमराव आंबेडकर द्वारा गांधी की लगभग दैवीय छवि को दी गई प्रबुद्ध चुनौती को भारत के कुलीन वर्ग द्वारा दबा दिया गया। रॉय के विश्लेषण में हम देखते हैं कि न्याय के लिए आंबेडकर की लड़ाई जाति को सुदृढ़ करनेवाली नीतियों के पक्ष में व्यवस्थित रूप से दरकिनार कर दी गई, जिसका परिणाम है वर्तमान भारतीय राष्ट्र जो आज ब्रिटिश शासन से स्वतंत्र है, वि स्तर पर शक्तिशाली है, लेकिन आज भी जो जाति व्यवस्था में आकंठ डूबा हुआ है। राजकमल प्रकाशन समुह की अनुमति से यह पुस्तक का अंश प्रकाशित किया गया है. हम सब जानते हैं कि भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में बहुत से सितारे थे। यह आन्दोलन हॉलीवुड की एक धमाकेदार और अत्यन्त लोकप्रिय फ़िल्म की भी विषयवस्तु रहा है, जिसने आठ ऑस्कर अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीते थे। भारत में एक रिवाज-सा है, जनमत सर्वेक्षण का, पुस्तकें और पत्रिकाएँ प्रकाशित करने का, जिनमें हम अपने संस्थापक पिताओं (माताओं को इसमें शामिल ही नहीं किया जाता) के तारा-मंडल को विभिन्न पदानुक्रम और संरचनाओं में ऊपर-नीचे पुनर्गठित करते रहते हैं। महात्मा गांधी के भी कटु आलोचक मौजूद हैं, लेकिन फिर भी उनका नाम हमेशा सरे-फ़ेहरिस्त आता है। औरों पर भी नज़र पड़े, इसके लिए राष्ट्रपिता को अलग कर पृथक् श्रेणी में डाला जाता है : महात्मा गांधी के बाद, कौन है सबसे महान भारतीय? डॉ. आंबेडकर लगभग हर बार पहली पंक्ति में आते हैं। (हालाँकि रिचर्ड एटनबरो की फ़िल्म गांधी में डॉ. आंबेडकर की एक झलक तक नहीं दिखी, जबकि इस फ़िल्म के निर्माण में भारत सरकार का धन खर्च हुआ था)। इस सूची में उनके चुनाव का एक कारण भारतीय संविधान निर्माण में उनकी भूमिका है। उनके जीवन और सोच का जो मर्म था—उनकी राजनीति और उनका जज़्बा—उसके लिए उन्हें चयनित नहीं किया जाता। आपको अहसास हो सकता है कि सूची में उनका नाम आरक्षण और राजनीतिक न्याय के दिखावे के कारण है। लेकिन इसके नीचे उनके ख़िलाफ़ प्रतिवादी फुसफुसाहट जारी रहती है— 'अवसरवादी' (क्योंकि उन्होंने ब्रिटिश वायसराय की कार्यकारी परिषद् के लेबर सदस्य के रूप में काम किया, 1942-46), 'ब्रिटिश कठपुतली' (क्योंकि उन्होंने ब्रिटिश सरकार की प्रथम गोल-मेज़ सम्मेलन का निमंत्रण स्वीकार किया, जब कांग्रेसियों को नमक क़ानून तोडऩे के लिए जेलों में बन्द किया जा रहा था), 'अलगाववादी' (क्योंकि वे अछूतों के लिए अलग निर्वाचिका चाहते थे), 'राष्ट्र-विरोधी' (क्योंकि उन्होंने मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की माँग का समर्थन किया, और क्योंकि उनका सुझाव था कि जम्मू और कश्मीर को तीन भागों में विभाजित कर दिया जाए)। उन्हें चाहे किसी भी नाम से क्यों न पुकारा जाता रहा हो, तथ्य यह है कि न तो आंबेडकर पर और न ही गांधी पर, कोई भी लेबल आसानी से चिपकाया जा सकता है—चाहे वह 'साम्राज्यवादी-समर्थक' का हो या 'साम्राज्यवादी-विरोधी' का। उनका टकराव हमारी साम्राज्यवाद की समझ को और उसके ख़िलाफ़ संघर्ष को, जहाँ एक तरफ़ पेचीदा करता है, वहीं शायद उसे समृद्ध भी करता है। क्या जाति का विनाश सम्भव है? तब तक नहीं, जब तक हम अपने आसमान के सितारों को पुनर्व्यवस्थित नहीं कर लेते। तब तक नहीं, जब तक वे, जो ख़ुद को क्रान्तिकारी कहते हैं, ब्राह्मणवाद का इन्क़लाबी आलोचनात्मक विश्लेषण विकसित नहीं कर लेते। तब तक भी नहीं, जब तक वे जो ब्राह्मणवाद को समझते हैं, पूँजीवाद का आलोचनात्मक विश्लेषण और अधिक पैना नहीं कर लेते। और तब तक नहीं, जब तक हम बाबा साहिब आंबेडकर को पढ़ नहीं लेते। विद्यालयों की कक्षाओं में नहीं, तो कक्षाओं के बाहर ही सही, लेकिन पढ़ें ज़रूर। वरना तब तक हम वही रहेंगे, जिन्हें बाबा साहिब ने हिन्दोस्तान के 'रोगग्रस्त पुरुष और महिलाएँ' कहा था, और जिन्हें भला-चंगा और स्वस्थ होने की कोई चाहत नहीं है। राजकमल प्रकाशन समुह की अनुमति से यह पुस्तक का अंश प्रकाशित किया गया है.
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