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अर्थशास्त्र मात्र राजनीतिशास्त्र की पुस्तक नहीं, इसमें राजतंत्रात्मक शासन–पद्धतियों का ऐतिहासिक अध्ययन भी होता है । कौटिल्य ने अर्थशास्त्र के तमाम पहलुओं पर विचार करते हुए इसे राजनीतिविज्ञान भी माना है । इसीलिए कौटिल्य का सारा ज़ोर राजा, राजकोष, प्रजा और शासन के केन्द्रीकरण पर था । ‘कौटिल्य का अर्थशास्त्र एक ऐतिहासिक अध्ययन’ इस अर्थ में महत्त्वपूर्ण है कि भारत के इस पहले अर्थशास्त्र ग्रन्थ को सदियों के मत–मतान्तरों के परिपे्रक्ष्य में समकालीनता की नई दृष्टि के साथ गहराई और गम्भीरता से देखा–परखा गया है, ताकि अर्थशास्त्र के मूल को मूलत: परिभाषित और आत्मसात् किया जा सके । यह पुस्तक ऐतिहासिक अध्ययन के साथ–साथ यह विमर्श भी खड़ा करती है कि इतिहास–प्रदत्त किसी भी प्रकार के सामाजिक, राजनीतिक एवं धार्मिक बदलाव में आर्थिक कारण को सर्वाधिक ठोस कारण मानने का सिलसिला अभी भी जारी है । नए शोधकार्यों ने अब यह प्रश्न खड़ा किया है कि सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक बदलाव का अगर प्रधान कारण आर्थिक परिवेश होता है तो आर्थिक बदलाव किस तथ्य पर आधारित है ? 21वीं सदी में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इस तथ्य को स्वीकृति मिली है कि आर्थिक बदलाव का सबसे ठोस आधार होता हैµविज्ञान एवं प्रौद्योगिकी । पूरा विश्व इस तथ्य को स्वीकारने लगा है कि जिस देश में जिस समय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की जैसी स्थिति रही वैसी ही उसकी आर्थिक स्थिति रही और जैसी आर्थिक स्थिति रही वैसी ही सामाजिक और राजनीतिक दशा । इससे स्पष्ट है कि कौटिल्य की निरंकुश नीतियों के मूल में वैज्ञानिकता अपनी अहम भूमिका में थी कि बग़ैर इसके सशक्त और विशाल साम्राज्य की स्थापना सम्भव नहीं, और इसके लिए राजा प्रजा की सुख–सुविधाओं एवं उसकी भलाई की व्यवस्था करनेवाला एक व्यवस्थापक मात्र है, जिनकी अवहेलना कर सभ्यता की उच्च अवस्था सम्भव नहीं । यह पुस्तक विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, नगरीकरण, कृषि एवं कृषक, शिल्पकार एवं कर्मकार, प्रशासन तथा स्त्रियों के बारे में विस्तृत एवं महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालती है, जो इतिहास और अब तक के अँधेरे से बाहर निकल एक नई दिशा में व़़दम बढ़ाने जैसा है ।
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