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रामकथा में दशरथ का चरित्र बड़ा ही अनूठा है। उन्हें साक्षात् विष्णु के अवतार श्रीराम का पिता होने का गौरव मिला है। प्रभु को सन्तान के रूप में पाकर दशरथ ने केवल आनन्द ही नहीं मनाया, उसका मूल्य भी चुकाया। यह मूल्य वसुदेव, देवकी और नन्द-यशोदा सबने चुकाया है। इनमें से कोई भी प्रभु को सन्तान बनाकर अपने पास नहीं रख पाया। दशरथ ने राम को बाँधा नहीं; यद्यपि ने के सुदृढ़ कारण मौजूद थे। दशरथ बुढ़ापे तक पुत्र के लिए तरसते रहे; कोई साधारण-सा पुत्र भी उन्हें मिल जाता तो वे धन्य हो जाते। सौभाग्य से उन्हें गुरुकृपा से साक्षात् विष्णु के अवतार श्रीराम पुत्र के रूप में मिले। ऐसे पुत्र को वनवास देकर खोना आसान काम नहीं था। पर दशरथ ने राम को छल-कपट करके, पिता के प्रेम का वास्ता देकर नहीं रोका। उन्होंने बड़ी प्रार्थनाएँ कीं कि राम रुकें, पर स्वयं उन्होंने राम से कभी रुकने को नहीं कहा। सदाचरण करनेवाले दशरथ अपने पुत्र को सदाचरण के मार्ग पर चलने से कैसे रोकते! महाराज दशरथ ने अपने वचनों को पूरा करके अपने चरित्र को तो गरिमा दी ही, साथ-ही-साथ राम को भी गरिमायुक्त आचरण करने को प्रेरित किया। दशरथ ने क्षुद्रता दिखाई होती तो राम के लिए महान् बनना कठिन हो जाता। अयोध्या नरेश के सामने बड़ी विकट समस्या थी। उन्हें वचन भी निभाना था और प्रेम भी। दोनों एक-दूसरे के विरोधी थे। वचन निभाने का अर्थ था, राम के प्रति प्रेम को हृदय से निकाल फेंकना और प्रेम निभाने का अर्थ था, वचन के सत्य-संकल्प से चूक जाना। उन्होंने दोनों किए। कैकेयी को दिये गये वचन को भी निभाया और राम के वियोग में प्राण त्यागकर प्रेम को भी निभाया।
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Ramayan;
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