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मैं कहूँगा, भारतीय संस्कृति जीवन के रस का तिरस्कार नहीं है, नकार नहीं है, पर एक अलग ढंग का स्वीकार है। भारतीय संस्कृति जीवन को केवल भोग्य रूप में नहीं देखती, वह जीवन को भोक्ता के रूप में भी देखती है; बल्कि ठीक-ठीक कहें तो जीवन को भाव के रूप में, अव्यय भाव के रूप में, न चुकनेवाले भाव के रूप में देखती है; अंग-अंग कट जाय, तब भी मैदान न छूटे—ऐसे सूरमा के भाव के रूप में देखती है। इस जीवन में मृत्यु नहीं होती, होती भी है तो वह जीवन के पुनर्नवीकरण के रूप में होती है। आनंद क्या भोग में ही है, भोग प्रस्तुत करने में नहीं है? खजुराहो में एक म्रियमाण माँ की मूर्ति देखी थी। वह बच्चे को दूध पिला रही है, शायद अपने रूप की अंतिम बूँद दे रही है। एकदम कंकाल है, पर चेहरे पर अद्भुत आह्लाद है। सूली के ऊपर सेज बिछाने में क्या मीरा को कम आनंद मिलता है! आनंद क्या इसमें है कि मुझे कुछ मिल गया या इसमें है कि मैं कहीं खो गया! यदि मनुष्य के जीवन में चरम आनंद है तो प्यार तो खोना ही है, पाना कहाँ है; हाँ, जो है, उससे कुछ अलग होना है; पर वह होना खोने के बिना कब संपन्न होता है। —इसी पुस्तक से
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