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प्रस्तुत पुस्तक में दो सामाजिक उपन्यास हैं- ' अग्निपंखी ' और ' सुबह के इंतजार तक ' । ' अग्निपंखी ' में आत्माभिमानी जयशंकर को शहर के मशीनी जीवन में माँ व पत्नी के साथ आर्थिक चुनौतियों तथा अभावों से जूझते दिखाया गया है तो ' सुबह के इंतजार तक में ' एक ऐसी युवती के संघर्षों की गाथा है, जिसका परिवार आर्थिक रूप से इतना समर्थ भी नहीं है कि जवान हो रही बेटी का ब्याह कर सके । अंतत: वह कैसे स्वयं को और अपने परिवार को उबारकर एक सम्मानजनक स्तर पर पहुँचाती है, उसी सबका कारुणिक वणन है । हृदय को झकझोर देनेवाले ये मार्मिक उपन्यास पाठकों के अंतर को छू जानेवाले हैं । '' हाँ तो, गा तो चुकीं उनसे पूरी गाथा कि कुक्कर मूते इस सहेर पर । एक कोठरी में दम घुटा जाता है-जेहल से भी बत्तर । अरे, ये भी कोई देस है! तो क्यों आई? मैं बुलाने गया था तुम्हें? तब तो जैसे धुन पकड़ ली थी । और अब जब से आई हो, खुचर कर- करके जीना दूभर कर दिया है । ऐसे-ऐसे चार कुनबेवाले रोज आकर बैठने लगें तो हम लोग क्या सड़क पर जाकर बैठेंगे? हजार दफे कह दिया, समझा दिया, सहर का कायदा अलग है, गाँव का अलग; पर तुम्हारे मगज में घुसता ही नहीं! सारे दिन तिरलोकी ठाकुर को बुलाकर बिठाए रहीं । अब वह (बहु कहाँ बैठती, यह भी सोचा? सामने बैठती तो बेसरम बना देतीं और अब जलालपुर का कुनबा न्योत रही हो । कहाँ बिठाएँगे? अपने सिर पर?'' सन्न अवाक् । वे जयशंकर का चिड़चिड़ाया, तमतमाया मुँह देखती रहीं- तो इसकी बेरुखी, इसकी रंजिश, झल्लाहट सब सच है । बहू ने कब, कैसे सुन लिया- और सुना भी तोमैं तो तमाम शहर में रहनेवालों के लिए कह रही थी-यह बेगाना, अजनबी शहर इसका इतना अपना कब से हो गया? और अपना सबकुछ बेगाना । - अग्निपंखी ' से
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