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पारिवारिक संबंधों के एकांकी दर्शन: यहाँ मत लड़ो, भाई!अब क्या समस्या है?माँ चली गयीं, किस्सा खत्म! उम्मी: लेकिन बेटे की याद तो आती रहती है। पत्नी तो कुछ भी नहींजो ये कहें, करते रहो, तब खुश रहते हैं। प्रभा: तो खुश रखा कर न इन्हेंयही तो तुम्हारा धर्म है! उम्मी: हाँ, सारे धर्म मेरे ही हैंइतना अहंकार ठीक नहीं होता पति पति ही होता हैस्त्री से कुछ ऊँचाज्यादा नहीं, थोड़ा सासिर्फ थोड़ा साइस ऊँचाई को कायम रखकर ही समानता का दर्जा भी मिलता है। —इसी संकलन से कुल-खानदान, कुटुम्ब और परिवार—हमारी अतिपुरातन समाज-रचना के ये शाश्वत-सशक्त मूलाधार आज खतरे में हैं, आधुनिक उद्योग-व्यापार-व्यवहार से उपजा उपयोगितावाद, निजी सुख-सपने और मूल्यगत विगलन का प्रदूषित जल-प्लावन हमारे निजी और आपसी जीवन-संबंधों को एकबारगी बहा ले जाने पर तुला है— इसी भयावह परिदृश्य का रोचक रूप-रंग एकांकी दृश्यबंधों में प्रस्तुत है— —पारिवारिक संबंधों के एकांकी
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