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धौम्य: निर्भय होकर बात करो । मैंने तुमको ' मा भै: ' का उपदेश दिया है । बतलाओ, उस परिस्थिति में तुम क्या करोगे? ललित: ( धौम्य के चरणों में गिरकर) मेरी अब अधिक परीक्षा न ली जाय, गुरुदेव! धौम्य: उठो वत्स, तुम्हारा स्नातक होना, न होना इसी प्रश्न के उत्तर पर निर्भर है । तुम्हारा संपूर्ण भविष्य इसीपर अवलंबित है । ललित: ( नतमस्तक और हाथ जोड़े) क्षमा किया जाऊँ तो निवेदन करूँ । धौम्य: मैं पहले ही कह चुका हूँ- ' मा भै: ' । ललित: कपिंजल के वध का समर्थन करते ही मेरी आत्मा का वध हो जाएगा; मुझे गुरुदेव ने अभी तक जो कुछ सिखलाया है, वह सब धूल में मिल जाएगा । चाहे मुझे आश्रम से निकाल दीजिए, मैं समर्थन नहीं करूँगा । धौम्य: धन्य बेटा, ललित! तुम अब ललितविक्रम हुए! और आज से स्नातक पद के योग्य 1 तुम्हारा प्रतिबोध जाग्रत हो चुका है । जब मैंने राजा रोमक को कपिंजल-वध की योजना बतलाई, तब तुम कौन सा संकल्प-विकल्प कर रहे थे? ललित: मैंने उसी समय निश्चय कर लिया था, जिसका अभी निवेदन किया । गुरुदेव, क्या यह मेरे पिता की परीक्षा नहीं है? धौम्य: है । देखना चाहता हूँ कि उनमें पदमोह अधिक है अथवा धर्ममोह । अभी उन्हें मेरा उद्देश्य मत बतलाना । अब जाओ वत्स, तुम्हारी आत्मा की विजय हो । -इसी पुस्तक से
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