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जंगल में बहती हुई नदी की तरह है रेणु की कविता-यात्रा। जिस तरह जंगल में बहती नदी अवरोधों-विरोधों की परवाह किए बिना अपना मार्ग स्वयं बना इठलाती रहती है, इसी तरह इस संकलन की रचनाएँ भी कवयित्री के स्वाभाविक और अनुभूतिजन्य उद्गार हैं। —रजनीश त्रिवेदी ‘आलोक’ देहरादून
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