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‘रामायण’ के युद्ध कांड के 19वें सर्ग के 30वें श्लोक में आदिकवि वाल्मीकि ने विभीषण को ‘धर्मात्मा’ विशेषण से अभिहित किया है (एवमुक्तस्तु धर्मात्मा प्रत्युवाच विभीषण:)। विभीषण अपनी न्यायप्रियता, दृढ़ता, संकल्पशक्ति, समर्पणशीलता, सत्यपरकता आदि गुणों से इस ‘धर्मात्मा’ विशेषण को सार्थक करते हैं। यही उपन्यास का मूल कथ्य है। इस कृति में विभीषण कालीन पर्व, सामाजिक प्रथाएँ, खान-पान, पर्यावरण, शिल्पकला और लंका की बंद सामाजिक व्यवस्था को अनावृत करने का सफल प्रयत्न किया है। विभीषण का उज्ज्वल स्वरूप विद्यमान दिखाया है, क्योंकि इस पात्र ने सदा न्याय, औचित्य और सत्य का पक्ष ग्रहण किया। राजा, संबंधी और देशप्रेम की नैसर्गिक किंतु संकुचित सीमाओं से उनका आदर्श नियंत्रित नहीं रहा। आसुरी वातावरण में निरंतर संघर्ष करते हुए वे अंत तक धर्म का अवलंबन लेते रहे। गहन शोध पर आधारित श्री सुधीर निगम की यह अभिनव रोचक कृति पाठकों के लिए अतीत हो चुके पौराणिक कालखंड के सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश को समझने में सहायक सिद्ध होगी।
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History;
Religious;