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मनीष माँ के सुझाव पर आश्चर्य प्रकट कर गया। “हाँ, मैं ठीक कहती हूँ।” “क्या?” वह अनमना-सा बोला। “यही कि गाँव चलो। कम-से-कम तब तक जब तक मंदी रहे। देखना, फिर दिन बहुरेंगे तुम्हारे भी, पैकेज के भी। जिंदगी तो बितानी होती है, बेटा। पैकेज के सहारे या पुश्तैनी जमीन के सहारे, क्या फर्क पड़ता है।” मनीष ने हामी तो नहीं भरी थी, पर रात को माँ-बेटे दोनों को अच्छी नींद आई थी। सुबह का अखबार हाथ में लेकर मनीष गाँव जाने की योजना बना रहा था। उसके एक मित्र द्वारा आत्महत्या करने की खबर फोटो के साथ छपी थी। वह भी पैकेजवाला नौजवान था, शादीशुदा। माँ चाय ले आई थी। मनीष लिपट गया माँ से। बोला, “माँ, चलो, अभी गाँव चलते हैं।” सुभद्रा बुदबुदाई थी, “कभी सुना था—जेवर संपत्ति का शृंगार और विपत्ति का आहार होता है। पर तुम्हारे लिए तो पुश्तैनी जमीन ही विपत्ति का आहार बन रही है। ढाई बीघा ही है तो क्या, तिनके का सहारा।” —इसी संग्रह से समाज जीवन की ज्वलंत समस्याओं से रू-ब-रू कराती ये कहानियाँ पाठक की अंत:चेतना को झकझोरती हैं। ये व्यक्ति, परिवार और समाज को तोड़ती नहीं, जोड़ती हैं। सर्वे भवन्तु सुखिन: का जीवन-मंत्र लिये, संवेदना और मर्म से भरपूर अत्यंत पठनीय कहानियाँ।
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