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प्रमिला तनकर खड़ी हो गई । हाथ जोड़े, ' जो भीख उनसे माँगी थी वही आपसे माँगती हूँ । ' लाहड को आश्चर्य हुआ । वह भी खड़ा हो गया । ' क्या? प्रमिला, क्या?' प्रमिला ने तुरंत झुककर उसके घुटने पकड़ लिये । वह पैर नहीं छू पाई । लाहड ने थाम लिया । प्रमिला रो पड़ी । रोते-रोते बोली, ' मेरे पिता और भाई की रक्षा करिए । उन्हें क्षमा कर दीजिए । ' लाहड का हाथ गले के गंडे पर गया और फिसलकर नीचे आ गया । प्रमिला उसके घुटने जकड़े थी । लाहड हिल गया । ' तुमने कैसे जाना कि मेरे मन में उनके प्रति हिंसा है?' लाहड का कंठ रुद्ध हो गया था । ' मैंने सुन लिया है । अंगद ने बतलाया । ' ' ओह! उसने । उसकी नीचता पर शंका कुछ समय से मेरे मन में हो गई है । तुम पलंग पर बैठ जाओ । बात करूँगा । तुम्हें दुःखी नहीं देख सकता । ' ' नहीं, मैं वचन लिये बिना नहीं मानूँगी । ' ' अच्छा, मैं वचन देता हूँ प्रमिला । अब तो छोड़ो । ' ' एक और । ' - इसी उपन्यास से देश में कभी भी आंभियों और जयचंदों की कमी नहीं रही है; पर साथ ही ऐसे पराक्रमी देशभक्तों की भी कमी नहीं रही है, जो अपनी मातृभूमि की समृद्धि के लिए, उसकी सुरक्षा के लिए प्राणपण से जीवन भर लगे रहे । प्रस्तुत उपन्यास में तत्कालीन कालिंजर व त्रिपुरि राज्यों की समृद्धि व स्थापत्य कला का ऐसा सजीव वर्णन है, जो भुलाए न भूले ।
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History;
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