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लोककथाएँ जन-जीवन का प्रामाणिक दस्तावेज होती हैं। इस दस्तावेज को हर पीढ़ी जातिगत धरोहर की तरह अगली पीढ़ी को सौंपती जाती है। समय का अंतराल लाँघकर हमें हमारे अतीत से जोड़ती मजबूत कड़ियाँ हैं— लोककथाएँ। नागालैंड में आज भी सफेद काचू की लकड़ियों के लाल होने को हनचीबीली की दुष्टता के दंड से जोड़ा जाता है। मेघालय की रांग्गीरा पहाड़ियों के उत्तर-पश्चिम में सिंगविल की जलधारा अपनी कल-कल में सिंगविल कर पाति परायणता की गाथा कहती है। जयंती देवी के अंतर्धान होने का स्थान मुक्तापुर है और उनकी कांस्य प्रतिमा की पूजा जयंतिया लोग आज भी करते हैं। पर्वतों की ऊँचाई से गिरते ‘क-क्षायेद यू-रेन’ के पानी से आज भी यू-रेन के शोकपूर्ण उच्छ्वासों के स्वर सुनाई देते हैं। मिजोरम के वांकल, सैलुलक गाँवों में आदि पुरुष छूराबुरा के औजार रखे हुए हैं तथा त्रिपुरा में नाआई पक्षियों में कसमती का होना पीतवर्णी नदी के अस्तित्व के साथ जुड़ा हुआ है। लोककथाओं के तिलिस्मी संसार का जादू सबके सिर चढ़कर बोलता है। बच्चों व किशोरों को ये अपने इंद्रजाल से कल्पनाओं के नए-नए लोकों में पहुँचा देती हैं; युवाओं, प्रौढ़ाां और वृद्धों को चिंतन के ऐसे अनदेखे द्वीपों पर ले जाती हैं, जहाँ किसी भी समाज की सांस्कृतिक परंपराओं और जीवन-मूल्यों को उनके ही संदर्भों से जोड़कर पहचानने और समझने की सम्यक् दृष्टि मिलती है। पूर्वोत्तर के जीवन का संगोपांग दिग्दर्शन कराती मनोरंजन से भरपूर लोककथाएँ।
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