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इस उपन्यास में नीना और दीप्ति दो-धु्रवीय पात्र हैं पर एक-दूसरे के पूरक हैं। जहाँ दीप्ति शालीनता और परिपक्वता का सागर है, वहीं नीना मानसिक अवसाद, उच्छृंखलता तथा अवसाद से घिरी एक अपरिपक्व लड़की है। मनोवैज्ञानिकता के धरातल पर अगर हम देखें तो नीना जैसा व्यक्तित्व अतृप्ति में डूब जाता है; अगर उसे एक सहारा नहीं मिलता है। कितना कठिन होता है स्त्री के लिए बार-बार छलावे से गुजरना! नीना स्वाभिमानी लड़की है किंतु परिस्थितियाँ उसे सिद्धार्थ से शादी करने को प्रेरित करती हैं; पर फिर उसका स्वाभिमान उसे बार-बार सोचने पर मजबूर करता है कि कहीं उसने सिद्धार्थ के जीवन में अतृप्ति के बीज तो नहीं बो दिए; और यही भाव उसे जीने की इच्छा से दूर ले जाता है। इस उपन्यास में स्त्री के डर, अतृप्ति, प्रेम, मित्रता, विश्वास, सामाजिकता, असुरक्षा का विश्लेषण मनोवैज्ञानिकता के आधार पर करने का प्रयास किया है। अंत तक तृप्ति और संतुष्टि को ढूँढ़ती नीना की आँखें ही इस ‘अंतहीन तलाश’ की रीढ़ बनीं। स्त्री मनोविज्ञान को विश्लेषित करता मर्मस्पर्शी एवं संवेदनशील पठनीय उपन्यास।
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