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अमृतयात्रा “गुरुदेव!” धृष्टद्युम्न बोला, “जो धर्म आपने मुझे सिखाया है उस धर्म के अनुसार, आचार्य पितातुल्य होते हैं और पितातुल्य आचार्य के वध का निमित्त बनने का पाप भी अक्षम्य है। इस पाप से मुझे मुक्ति दीजिए। बताइए गुरुदेव, मेरा धर्म क्या है?” “पुत्र!” द्रोण जैसे कोई निर्णय ले रहे हों, “इस समय तो तुम्हारा धर्म गुरुदक्षिणा देने का है। गुरुदक्षिणा दिए बिना विद्या अपूर्ण रहती है।” “आप आज्ञा दीजिए, आचार्य। मेरा सर्वस्व ही आपके चरणों में है।” “तो फिर गुरुदक्षिणा में एक वचन माँगता हूँ, राजकुमार!” द्रोण ने कहा, “वत्स, मुझे वचन दो कि जिस भवितव्य के लिए तुम्हारा जन्म हुआ है, उस भवितव्य का साक्षात्कार जिस क्षण हो उस क्षण” “गुरुदेव!” “हाँ, पुत्र! उस क्षण तुम मेरे द्वारा सिखाई गई शस्त्र विद्या का पूर्ण प्रयोग करोगे। अपने निर्माण का धर्म पूर्ण करने के लिए स्वयं आचार्य पर भी तुम प्रबल प्रहार करना, वत्स। मुझे तुमसे इसी गुरुदक्षिणा की अपेक्षा है।” “आचार्यआचार्य!” धृष्टद्युम्न स्तब्ध हो गया, “आप यह क्या कह रहे हैं? इस वचन का अर्थ है—गुरु-हत्या का महापातक” “इसे पातक नहीं, जीवन-कर्म कहो, पुत्र। यज्ञदेवता के निर्माण पर असंतोष महाकाल के विरुद्ध विद्रोह है। यह विद्रोह अधर्म है।” —इसी उपन्यास से तत्कालीन आर्यावर्त के दुर्दम्य योद्धा और हस्तिनापुर के प्रतिष्ठित आचार्य द्रोण के जीवन पर आधारित एक मार्मिक उपन्यास। द्रोणाचार्य ने अपने जीवन में तमाम विडंबनाओं और त्रासदियों को भोगा। उनका जीवन मान-अपमान, न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म के मध्य उलझता-सुलझता रहा। उनकी जीवनयात्रा अमृतयात्रा ही तो है। एक कालजयी व हृदयस्पर्शी उपन्यास, जो अत्यंत रोचक व पठनीय है।
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Religious;