About Product
बिरसा की जग उठी जिजीविषा, ललक उठी पढ़ने की, जो पथ अनदेखा मुंडों को, वैसा पथ गढ़ने की। और ईश की माया ऐसी उसने जुगत लगाई, जयपाल की शाला में हुई, उसकी शुरू पढ़ाई। विषम घड़ी में भी मनुष्य अपना भविष्य गढ़ता है, पता नहीं किसी भाँति विधाता, राह प्रकट करता है! बड़े सवेरे उठकर बिरसा नित जाता था शाला, बाघ, भालुओं से उसका पड़ता ही रहता पाला। चुभते थे पग में काँटे, उठते थे ढेरों छाले, माँ ने उन सबको मन के आँसू से धो डाले। पुत्र कहीं हो, माँ की ममता वहाँ पहुँच जाती है, पता नहीं किस पथ से आ वह, उसको सहलाती है। कौशल्या भी बहुत विकल थीं, गए राम जब वन को, रोती थीं वे सोच राम के, पग की चोट-चुभन को। माँ तो बस माँ ही होती है, कौशल्या, मरियम या करमी, बेटा बस बेटा होता है, बिरसा सा गरीब या राम सा धर्मी। जंगल का कोना-कोना तो अब उसका था साथी। वनवासियों के सिरमौर वीर बिरसा मुंडा का संघर्षमय प्रेरणाप्रद जीवन सबके लिए अनुकरणीय है। उन्होंने अपने ‘युग का प्रश्न’ समझा था, उस युग की पीड़ा पहचानी थी और सबसे ऊपर उसने समय की नब्ज पकड़ी थी। एक सच्चा नायक इससे ज्यादा क्या करता है! बिरसा मुंडा के जीवन पर खंडकाव्य के रूप में विनम्र काव्यांजलि है यह पुस्तक।
Tags:
Poems;