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यह पुस्तक या कहें विमर्श से इस तथ्य को रेखांकित करता है कि स्वाधीन भारत की 6 वर्ष लंबी यात्रा की परिणति भ्रष्टाचार, सामाजिक विखंडन, घोर व्यक्तिवादी, सत्तालोलुप राजनैतिक नेतृत्व के उभरने का दृश्य देखकर अनेक मित्रों के मन में प्रश्न उठा कि यदि संविधान हमारे राष्ट्रीय लक्ष्यों को प्राप्त करनेवाला पथ है तो 26 जनवरी, 1950 को हमने जिस सांविधानिक मार्ग पर चलना आरंभ किया, वह हमें उल्टी दिशा में क्यों ले जा रहा है? वहीं यह प्रश्न भी उभरता है कि क्या यह संविधान हमारी मौलिक रचना है या ब्रिटिश सरकार द्वारा आरोपित तथाकथित संविधान सुधार प्रक्रिया की अनुकृति? संविधान गलत है या हमारे जिस नेतृत्व ने इसे गढ़ा वह किसी भ्रम का शिकार बन गया था? हमारे दुःखों का मूल संविधान में है। जो लोग आजादी के बाद से ही व्यवस्था परिवर्तन की पीड़ा से गुजर रहे हैं, वे इस पुस्तक से निदान पा सकते हैं। वह यह कि भारत का संविधान सन् 1935 के अधिनियम का विस्तार है। सिर्फ दो महत्त्वपूर्ण परिवर्तन इस संविधान में हैं। एक, विभिन्न वर्गों के आरक्षण को हटाया गया। दो, वयस्क मताधिकार दिया गया। प्रो. देवेंद्र स्वरूप की इस पुस्तक से यह समझ सकते हैं कि क्यों आजादी के इतने सालों बाद भी समाज का राज्यतंत्र से मेल नहीं बैठ पाया है? क्यों राज्यतंत्र देशज निष्ठाओं से दूर है? क्यों आमजन की सोच और समझ से उसका नाता नहीं जुड़ पाया? इन्हीं और ऐसे तमाम सवालों के जवाब इस पुस्तक में मिलते हैं। यह राजनीतिक इतिहास की वह पुस्तक है, जो भविष्य के सूर्योदय का भरोसा देती है|
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Indian Constitution;