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दफ्तर की अवधि में बिलकुल ठीक समय पर बैजनाथ बाबू कार्यालय में पहुँचते, हाजिरी रजिस्टर पर दस्तखत करते, कुरसी-टेबल को चपरासी से झड़वाते, अलमारी की चाबी देते, टेबल पर दो-चार फाइलें रखवाते, कलमों का स्टैंड करीने से रखते, घंटी को बजाकर देखते; फिर कुरसी पर बैठते । किसी-न- किसी बहाने साहब के चेंबर में जाते । उन्हें शक्ल दिखाते । घर का कुशल- क्षेम और अपने लायक विशेष सेवा पूछते । ' भीतर किसको भेजूँ सर?' जैसा सवाल ' चस्पाँ करते । दफ्तर के मौसम का हाल बयान करते और ' आपकी मेहरबानी का धन्यवाद, मेहरबान ' कहकर सिर झुकाए बाहर आ जाते । बाहर आकर अपनी कुरसी पर बैठते । और बिजूका बनाना शुरू कर देते । घर से लाए झोले को कुरसी पर लटका देते । अलमारी में से अपनी खैनी-तंबाकू की डिबिया टेबल पर रखते । चूने की डिबिया को आधी खुली रखकर पोजीशन देते । कलमदान में से एक कलम निकालकर उसे खुली छोड़ते । घर से लाए अतिरिक्त चश्मे को खोलकर सामनेवाली फाइल पर रखते । फिर चुपचाप अलमारी में से अपनी एडीशनल जैकेट निकालकर कुरसी के पीछे फैलाकर टाँग देते । सारा दफ्तर कनखियों से देखता था कि बिजूका बन रहा है । -इसी पुस्तक से.
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