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‘ढोलक रानी मोरे नित उठि आयू’ में लोकमंगलकार भाव का आह्वान है, जो भारतीय संस्कृति का प्राणतत्त्व है। भारतीय ऋषियों ने मानव जीवन को संस्कारों के अनुशासन में बाँधकर उसे मनुष्य होने की गरिमा और सार्थकता देने का विधान रचा। शास्त्र और लोक, दोनों ने इस अनुशासन का महत्त्व समझा और संस्कारों, अनुष्ठानों के गीत तथा रीतियाँ परंपरा में प्रवाहित होते रहे। आज आपाधापी के युग में संस्कारों को विधिवत् संपन्न कराने का समय नहीं रहा। लोगों की रुचि और निष्ठा भी धीरे-धीरे चुकती जा रही है। वाचिक परंपरा की यह अनमोल विरासत संस्कार-गीत और लोकधुनें भी लुप्त हो रही हैं। इस धरोहर को सहेजना और इनके महत्त्व के प्रति लोगों को जागरूक करना आज राष्ट्रीय कर्तव्य है। इसमें संस्कार-गीतों के पद्यानुवाद हैं, स्वरलिपियाँ हैं, लोक-चित्र हैं, संस्कारों की रीतियों से जुड़े गीत हैं, जिनका सांस्कृतिक एवं सामाजिक महत्त्व है। मैं लोकगीतों की पंक्तियाँ गुनगुनाती, उनके भावों में डूबती-उतराती वर्तमान सामाजिक समस्याओं का निदान उनमें ढूँढ़ती हूँ। संस्कार गीतों में मनुष्य, परिवार और समाज जीवन-निर्माण की सारी कलाएँ पिरोई हुई हैं। भिन्न-भिन्न भाषाओं के संस्कार-गीतों के उद्देश्य और भाव एक ही हैं, क्योंकि भारतीय जीवन-मूल्य एक है। मैं विद्या विंदु सिंह की आशीर्वाद और शुभकामना देती हूँ कि उनका प्रयास संस्कारों से विमुख होते जा रहे मनुष्यर में संस्कारों की संवेदना फिर से जगा सके । —मृदुला सिन्हा, वरिष्ठ साहित्यकार.
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