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स्वतंत्रता आंदोलन के समय भारत की दशा और उस काल में भारतीय स्त्री की दशा की विभीषिका को इस उपन्यास के पृष्ठों में एक नया कलेवर दिया गया है। उस समय की नारी जब चौखट के बाहर की दुनिया से कम प्रभावित रहती थी, उस दौरान नारी जागरण और उसकी स्वप्निल दुनिया को यह उपन्यास निखारता है। यह उपन्यास करीब 60 साल पूर्व लिखा गया, जिसके कारण इसमें स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान की गतिविधियों को सँजोते हुए उस काल की राजनीतिक, सामाजिक व्यवस्थाओं का व्यापक चित्रण मिलता है। आज की तरह से स्त्री स्वतंत्रता की पैरोकारी तो अधिक नहीं है, लेकिन लेखिका ने इस उपन्यास में सामाजिक चेतना के लिए जागरूकता लानेवाली नायिका की प्रबल इच्छाशक्ति को उभारा है। उपन्यास की नायिका जागरूकता की आँधी चलाते-चलाते कैसे अपने प्रेम के भटकाव का शिकार बन जाती है—इसे सहज समझा जा सकता है। इस उपन्यास में लेखिका ने उन तत्कालीन परिस्थितियों को भी उभारा है, जिसमें एक नारी के घर-गृहस्थी से लेकर उसके सपनों की ऊँची उड़ान का रोचक वर्णन है। नायिका के प्रेम का उच्च अध्याय इसमें समाहित होकर आगे आता है। ऐसे समय में नायिका का भटकाव और उसकी विवशता उपन्यास की रोचकता को बहुत आगे लेकर जाता है। ‘पंखहीन’ ममता और अपनत्व की स्नहच्छाया का बोध कराता है और भारतीय संस्कृति-समाज और सभ्यता से गहरे परिचय भी। पारिवारिक जीवन-मूल्यों और सामाजिकता से भरपूर पठनीय उपन्यास।.
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Novel;