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सनातन वह जीवन-दर्शन है, जो प्रकृति को वश में करने का समर्थन नहीं करता। यों तो प्रकृति को पराजित करके उस पर कब्जा करना संभव नहीं। मगर इस तरह की सोच आसुरी चिंतन है, जबकि सनातन दैवीय चिंतन है। यहाँ इंद्रियों को वश में करने की बात होती है। सनातन लेने की नहीं देने की संस्कृति है। सनातन मृत नहीं, जीवंत है। स्थिर नहीं, सतत है। जड़ नहीं चैतन्य है। सनातन जीवन-दर्शन भौतिक, शारीरिक, पारिवारिक, सामाजिक से ऊपर उठकर आत्मिक, आध्यात्मिक और त स्तर पर भी संतुष्ट करता है। यह उपभोग की नहीं उपयोग की संस्कृति है। यह लाभ-लोभ की नहीं, त्याग की संस्कृति है। यह भोग की नहीं, मोक्ष की संस्कृति है। यह बाँधता नहीं, मुक्त करता है। सनातन हिंदू, भक्षक नहीं, प्रकृति रक्षक होता है। वैदिक सनातन हिंदुत्व एक प्रकृति संरक्षक संस्कृति है। ‘मैं सनातनी हूँ’ कहने का अर्थ ही होता है ‘मैं प्रकृति का पुजारी हूँ’। सनातन जीवन-दर्शन दानव को मानव बनाता है, मानव को देवता और देवता को ईश्वर के रूप में स्थापित कर देता है। सनातन सिर्फ स्वयं की बात नहीं करता, सदा विश्व की बात करता है। सिर्फ आज की बात नहीं करता, बीते हुए कल का विश्लेषण कर आने वाले कल के लिए तैयार करता है। इसलिए शाश्वत है, निरंतर है। आधुनिक मानव को सनातन के इस मूल मंत्र को पकड़ना होगा, तभी हम सनातन जीवन-दर्शन को समझ पाएँगे। —इसी पुस्तक से.
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