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भारत की वैदिक ऋषिकाओं में महर्षि अगस्त्य की पत्नी ‘लोपामुद्रा' का चरित्र एक क्रियाशील और रचनात्मक स्त्रीशक्ति के रूप में प्रकट हुआ है। राजसी वातावरण से वन के आश्रम-जीवन में प्रवेश करना, महात्रिपुरसुंदरी की शक्ति के रूप में भोग और योग को समान भाव से स्वीकार करना, धन, वन और मन–तीनों भूमिकाओं में सहज रहना, कई बदलती मुद्राओं में भील, कोल-किरात आदि वन्य-जीवों को प्रशिक्षित कर मनुष्यता की सीख देना और अंत में महर्षि अगस्त्य के साथ भारत के दक्षिण भाग को समुन्नत करना उनके ऋषिधर्म की विराटता को सूचित करता और बताता है कि समूची सृष्टि को ध्यान में रखना ही असली ध्यान है, जीवन की विविधता का परिचय ही ज्ञान है और श्रम-साधना ही वास्तविक तप है। लोपामुद्रा का चरित्र अत्यंत कोमल, वत्सल और करुणा भाव से युक्त मातृशक्ति का उदाहरण है। वे वेदमंत्रों का दर्शन करती हैं, उसकी दिव्यता को सबके जीवन में उतारना चाहती हैं। वे त्रिपुरसुंदरी की श्रीविद्या और हादि विद्या की द्रष्टा हैं तो वे सर्वसाधारण और सर्वहारा वर्ग के विकास की भी चिंता करती हैं। दोनों तत्त्वों का विरल सामंजस्य ही उनकी विशेषता है। ‘लोपामुद्रा' एक दिव्य सशक्त नारी भाव की कुंजी है, जो केवल अपने पति महर्षि अगस्त्य को ही महान् नहीं बनातीं, अपितु दमित, दलित और असहाय मानववर्ग को अपनी छिपी हुई क्षमता से परिचित कराकर संपूर्ण समाज और राष्ट्र को उन्नत धरातल पर प्रतिष्ठित करती हैं।
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India;
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