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प्रातिभ साहित्य और वाचिक साहित्य दोनों में कथा अभिप्राय अपनी गूढ़ व्यंजना के कारण विशेष महत्त्व रखते हैं। लोककथाओं की वाचिक परंपरा में व्यक्त इन अभिप्रायों का अध्ययन करके लोक साहित्य का मूलभाव लोकमंगल की अवधारणा को समझा जा सकता है। इसलिए लोककथाओं, लोक सुभाषितों में व्यक्त अभिप्रायों को उनके संदर्भों से जोड़कर लोक में प्रस्तुत करने से कथा का उद्देश्य स्पष्ट होता है। इस पुस्तक में अभिप्राय चिंतन की पृष्ठभूमि कुछ उदाहरणों के माध्यम से प्रस्तुत की गई है। अभिप्रायों के अध्ययन, उनकी उपयोगिता, उनकी व्यंजना तथा उनके प्रभाव रेखांकित करने का प्रयास किया गया है। अलग-अलग निबंधों के माध्यम से लोक-संस्कृति, लोककथाओं और उनमें व्यक्त कथानक रूढि़यों, अभिप्रायों को व्यक्त किया गया है। विविध व्रत-पर्व-त्योहारों की कथाएँ तथा अन्य प्रचलित कथाएँ दी गई हैं, जिन्हें पढ़कर उनमें व्यक्त अभिप्राय पहचानने की दृष्टि स्वयं मिल सकती है। इन अभिप्रायों में प्रकृति के प्रति गहरी संवेदना, कृतज्ञता और परस्पर अन्योन्याश्रितता के भाव पाठक स्वयं अनुभव कर सकते हैं। आधुनिक समाज की संवेदन शून्यता, जो प्रकृति और मानव जीवन को असह्य और असहज बनाती जा रही है, उसे लोककथाओं की गहरी संवेदना का स्पर्श मिलेगा तो सकारात्मक सोच के प्रति हम आश्वस्त हो सकेंगे। —इसी पुस्तक से.
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