About Product
बचपन के दिन भी क्या दिन थेनभ में उड़ते तितली बन के ' उम्र की तीसरी सीढ़ी पर पाँव रखते ही आदमी को रह- रहकर सताने लगती है बचपन और जवानी की वह मौज-मस्ती जब वह जिंदगी की हरी- भरी वादियों में झूमता-गाता-इठलाता किसी भी तूफान-बवंडर से टकरा जाने के लिए भरपूर बल और दमखम अपने तन- बदन में महसूस करता था । पर उम्र की आखिरी दहलीज के निकट वह आज बूढ़ों की जमात में शामिल हो गया है । अनायास उसके सोचने व काम करने की शक्ति में शिथिलता आने लगी है । बैसाखियों के सहारे चलने वाला वह खुद को बहुत ही मजबूर और कमजोर इनसान समझने लगा है । उसके अपने परिवार के लोग भी उससे एक फालतू और बेकार की चीज की तरह व्यवहार करने लगे हैं । और यहीं से शुरू हो जाता है उसके व्यक्तित्व के विघटन का दौर । न केवल उसकी मानसिकता चुक जाती है वरन् वह तजुर्बों का एक ताबूत बनकर रह जाता है जिसमें उसके बेटे-बेटियाँ पोते-पोतियाँ तथाकथित आधुनिकता की कीलें ठोक देते हैं । बूढ़ों की मानसिकता को रूपायित करने, उनकी दुविधाओं को चित्रित करने और वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में उनकी पीड़ा को शब्द देने का ही एक महत्वपूर्ण प्रयास इन कहानियों में है ।
Tags:
Stories;