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आदमी और गिद्ध एक गिद्ध ने थके-हारे बुजुर्ग को स्मरण दिलाया, “अब तो वृद्ध के प्राण भी छूट गए हैं। वह बाहर लॉन में केवल कुत्ते और चिड़ियों के साथ अकेला पड़ा है। भूख मिटाने का यह स्वर्णिम अवसर है। बस, हमें धावा बोलना है।” वृद्ध गिद्ध ने एक बार चोंच घुमाकर सबकी तरफ देखा, फिर दु:खी स्वर में बोला, “चलो, कहीं और चलें। जिसे पशु-पक्षियों से इतना स्नेह था कि वे उसकी लाश पर रो रहे हैं, उसमें चोंच गड़ाने का जी नहीं कर रहा है। मानव में भले न बची हो, पर हममें तो गिद्ध-संवेदना अभी भी शेष है।” गिद्ध शहर से कूच कर जंगल की ओर उड़ लिये। बुजुर्ग को डर लगा कि यदि वे देर तक शहर में रुके तो गिद्धों पर कहीं इनसानों का साया न पड़ जाए! वैसे भी शहरों में गिद्धों की दरकार ही क्या है, वहाँ एक-एक घर में कई-कई गिद्ध हैं। —इसी पुस्तक से प्रसिद्ध व्यंग्यकार गोपाल चतुर्वेदी के ये व्यंग्य-लेख अत्यंत धारदार हैं और वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में व्याप्त विसंगतियों-विद्रूपताओं की पोल खोलते नजर आते हैं। इनकी मारक क्षमता बेजोड़ है। ये व्यंग्य सुधी पाठकों को गुदगुदाएँगे, हँसाएँगे और कुछ नया करने के लिए प्रेरित करेंगे।
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Novel;