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महानगर की कहानियाँ महानगरों में पारिवारिक संबंध, नैतिक मूल्य, धर्म और सभ्यता के सारे सिद्धांत असत्य प्रतीत होते हैं। भाई-बहन, माँ-बाप, मित्र-परिचित, पास-पड़ोस के वे सभी संबंध, जिनमें हजारों वर्षों की सभ्यता का इतिहास छिपा हुआ था, इस महानगरी ने सबको व्यर्थ कर दिया है। आज आवश्यकता है कि नगर और महानगर के बीच जो असंतुलन बढ़ रहा है वह कम हो। भीड़ इनसानों का जंगल न बनकर मानवीय स्तर पर जीवित रहे। आदमी और आदमी के बीच टूटन, घुटन, संत्रास, बिखराव एवं अपरिचय का जो वातावरण बन रहा है वह इस सीमा तक न बढ़े कि हम नागरिक सभ्यता से ऊबकर जंगली सभ्यता की ओर भाग निकलें। इस पुस्तक में जो कहानियाँ संकलित की गई हैं उनके रचनाकारों ने अपने-अपने ढंग से महानगरों की विषमताओं एवं विसंगतियों को देखा है, समझा है, महसूस किया है, विश्लेषित किया है और अभिव्यक्त किया है। इस संकलन की कहानियाँ महानगरों की अनेकानेक समस्याओं से जूझते व्यक्ति और उसके मनोविज्ञान का परिचय कराने में सहायक होंगी, ऐसा हमारा विश्वास है।
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