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श्रेष्ïठ हास्य-व्यंग्य गीत आज परिवार में, समाज में, देश में, विश्व में—अर्थात् हर तरफ इतनी विसंगतियाँ व विडंबनाएँ बिखरी हुई हैं कि मनुष्य का हँसना दूभर हो गया है। नाना प्रकार के तनाव, चिंताएँ आज इनसान को घेरे हुए हैं। अजीब भाग-दौड़ हो रही है। विकट आपा-धापी मची हुई है। सबकुछ बाजार हुआ जाता है। ऐसे माहौल में गीत में यह सामर्थ्य है कि वह उदास चेहरों पर ठहाकों के फूल खिला दे। और कटाक्ष करने पर उतरे तो क्या नाते-रिश्तेदार, क्या नेता-अभिनेता, क्या कर्मचारी-अधिकारी—यानी परिवार-समाज, देश-विश्व का कोई ऐसा सदस्य नहीं, जो गीत के व्यंग्य-बाणों से बच सके। बुराइयों पर बड़े सलीके से वार करते हैं ये श्रेष्ठ हास्य-व्यंग्य गीत।
Tags:
Novel;
Poetry;