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एक वज्र मूर्ख था, यानी उसमें अक्ल का नामोनिशान भी नहीं था। एक बार वह कहीं जा रहा था। चलते-चलते रास्ते में उसे भूख लग आई। थोड़ी दूर पर हलवाई की एक दुकान थी। जल्दी-जल्दी वह वहाँ पहुँचा। उसने उस दुकान से आठ पूड़ियाँ खरीदीं। फिर एक अच्छी जगह बैठकर उसने उन्हें खाना शुरू किया। एक पूड़ी खाई, दूसरी पूड़ी खाई, तीसरी खाई; लेकिन फिर भी उसका पेट नहीं भरा। इसलिए उसने चौथी पूड़ी खाई, फिर पाँचवीं खाई, छठी भी खा गया। लेकिन उसका पेट अब भी नहीं भरा। तब उसने सातवीं पूड़ी उठाई और उसे भी पहले की तरह खा गया। लेकिन इस बार क्या हुआ कि उसका पेट भर गया। हमने पहले कहा है न कि अक्ल का नाम भी नहीं था उसमें। वह वज्र मूर्ख था। अपने आप से बोला, “सचमुच ही मैं मूर्ख हूँ। जरा भी अक्ल नहीं मुझे। सोचो तो, अगर मैं सबसे पहले इस सातवीं पूड़ी को खाता तो मेरा पेट भर जाता और वे छह पूड़ियाँ बेकार न जातीं। अब मैं ऐसी गलती कभी नहीं करूँगा। अब सबसे पहले सातवीं पूड़ी खाया करूँगा।” —इसी पुस्तक से
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