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अपने समाज के कोने-अन्तरे देखना-जाँचना लेखक के दायित्वों में शुमार है । लेखक अँधेरों के न जाने कितने शेड्स, न जाने कितनी परतों में उतरता है कि उन्हें बाहर की दुनिया में प्रकाशित कर सके । इस पर भी शर्त ऐसी कि यह सब सायास नहीं होना चाहिए । अन्त:प्रेरणाएँ ही ऐसा करवाती हैं और जब अनायास ऐसा को जाता है तो कोई रचना सम्भव होती है । बहुत प्रयासों से लिखे जा रहे समकालीन कथा-साहित्य में अनायास के जप-संग बहुत कम हैं और जब वे सामने अति हैं तो एक अबूझ-सी प्रसन्नता होती है । ऐसा ही एक प्रसंग कवि अमित श्रीवास्तव के लघु उपन्यास 'गहन है यह धकारा’ के रूप में मेरे सामने है । अमित को यह कथा-कृति अपनी पूरी गरिमा के साथ सरल और सहज है । पृष्ठ-दर-पृष्ठ यह रोचक होती जाती है । इसमें अनावश्यक चुटीलापन नहीं है, लेकिन व्यंग्य भाषा के रूप में है । उस रूप में है, जिस रूप में जनसामान्य की जीभ पर अमूमन वह रहता है । वीरेन डंगवाल की भाषा का सहारा ले और पूछें कि हमने आखिर कैसा समाज रच डाला है...तो यही पृच्छा अमित के कथानक और भाषा, दोनों में, कईं बार सिर उठाती है । अमित की कविता में पूछने की आदत बहुत है और यह आदत कथा में गई है, यह जानना आश्वस्त करता है । अपने पीछे सवाल छोड़ जाएँ, ऐसी महत्वाकांक्षा से भरी कथाएँ बहुत दिख रही हैं वनिस्वत ऐसी कथाओं के, जो अपने भीतर बहुत सारे सवाल साथ लाएँ । हर कोई सवाल पैदा करने के फेर में है, अब तक अनुत्तरित रहे सवालों के साथ आना और रहना कम को रहा है-ऐसे बनावटी परिदृश्य में अमित उन्हीं मौलिक सवालों के साथ है, जिनके जबाब अब तक नहीं मिले हैं । पुलिस का साबिका अकसर ही समाज के अँधेरों से पड़ता है, इस उपन्यास का प्रस्तोता किबा लेखक पुलिस अफसर ही है, सो यह अँधेरा उसके ठीक सामने है । इस अँधेरे में पुलिस की पड़ताल और लेखक की खोज सहज ही साथ चलती है । उपन्यास छोटा है पर लगता नहीं कि कथा के विकास में कोई हड़बडी की गई है । यह अमित की कला है, जो दरअसल हुनर की तरह है । यह हुनर वैसा है, जैसा किसी तरह का सामाजिक उत्पाद कर रहे कारीगर में होता है । ऐसे हुनर के साथ, जो रची गई, 'गहन है यह अन्थकारा’ नामक इस कथा का हिन्दी ससार में स्वागत है । यह प्रतिभा, यह हुनर सदा रोशन रहे, यही कामना है । --शिरीष कुमार औरों.
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Novel;
Fiction;