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जून की तपती दोपहरी में नंगे नन्हे पैर जब ट्रेन की पटरियों के किनारे पड़े गरम पत्थरों पर चिलचिलाती धूप में जिला कारागार तक अपने पिता से मिलने उछलते चले जाते हैं तो आपातकाल की छुपी हुई अकथ भोगी हुई कहानी बूँद-बूँद स्मृतियों में आ जाती है। ‘झुकना मत’ उपन्यास न केवल काल और कला की दृष्टि से वरन् लोक-अनुभूति, लोक-अभिव्यक्ति, लोक-समर्पण, लोक-आकांक्षा, लोक-उत्कंठा, लोक-तंत्र व लोक-पन की दृष्टि से लोक-जीवन की उत्सर्ग गाथा है। वहीं प्रेम की अजस्र-धार भी है। भाव-जगत् का यह उपन्यास ऐतिहासिक नहीं कहा जा सकता। पात्रों का, घटनाओं का उल्लेख समाज-जीवन के अनुरूप प्रभावोत्पादन की दृष्टि से मिलता है, इसलिए इसे किसी विशेष व्यति से जोड़कर देखना हितकारी नहीं है। शदों के बीच बहुत कुछ छिपा पड़ा है। सही आकलन तो सुधी-पाठक ही करेंगे।.
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Fiction;
Self Motivation;